Saturday, 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।१८।।

मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

व्याख्या—

क्षर और अक्षर की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, पर परमात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है । क्षर और अक्षर दोनों परमात्मा में ही रहते हैं । परन्तु अक्षर अर्थात्‌ जीव क्षर के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसके अधीन हो जाता है-‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) । परमात्मा क्षर के अधीन नहीं होते, प्रत्युत क्षर से अतीत रहते हैं । इसलिये परमात्मा अक्षर (जीव)-से भी उत्तम हैं । यदि जीव जगत्‌ के साथ सम्बन्ध न जोड़कर उसके स्वामी परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़े तो वह परमात्मा से अभिन्न (आत्मीय) हो जायगा-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌’ (गीता ७ । १८) ।

मुक्ति में तो अक्षर (स्वरूप)-में स्थिति होती है, पर भक्ति में अक्षर से भी उत्तम पुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है । स्वरूप अंश है, परुषोत्तम अंशी हैं ।


ॐ तत्सत् !

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