Monday, 8 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.३४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।४९।।

यह इस प्रकार का मेरा घोररूप देखकर तुझे व्यथा नहीं होनी चाहिये और विमूढ़भाव भी नहीं होना चाहिये । अब निर्भय और प्रसन्न मनवाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूपको अच्छी तरह देख ले ।

व्याख्या—

अर्जुन को भयभीत देखकर भगवान्‌ कहते हैं कि मैं चाहे शान्त अथवा उग्र किसी भी रूप में दिखायी दूँ, हूँ तो मैं तुम्हारा सखा ही ! तुम डर गये तो यह तुम्हारी मूढ़ता है ! जो कुछ दीख रहा है, वह सब मेरी ही लीला है । इसमें डरनेकी क्या बात है ?
हमें जो संसार दीखता है, वह भगवान्‌का विराट्‌रूप नहीं है । कारण कि विराट्‌रूप तो दिव्य और अविनाशी है, पर दीखनेवाला संसार भौतिक और नाशवान्‌ है । जैसे हमें भौतिक वृन्दावन तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य वृन्दावन नहीं दीखता, ऐसे ही हमें भौतिक विश्‍व तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य विश्‍व (विराट्‌रूप) नहीं दीखता । ऐसा दीखने में कारण है-- सुखभोगकी इच्छा । भोगेच्छा के कारण ही जड़ता, भौतिकता, मलिनता दीखती है । यदि भोगेच्छाको लेकर संसार में आकर्षण न हो तो सब कुछ चिन्मय विराट्‌रूप ही है ।

ॐ तत्सत् !

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