॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।७।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।८।।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।९।।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।१०।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।११।।
मानित्व(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव) का न होना, दम्भित्व(दिखावटीपन) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहरभीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना।
इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बारबार देखना।
आसक्तिरहित होना पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलताप्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
मुझमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जनसमुदायमें प्रीतिका न होना।
अध्यात्मज्ञानमें नित्यनिरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना -- यह (पूर्वोक्त साधनसमुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है।
व्याख्या—
अब भगवान् क्षेत्रके साथ माने हुए सम्बन्ध (तादात्म्य)---को तोड़नेके लिये ज्ञानके साधन बताते हैं ।
एक ‘दुःखका भोग’ होता है और एक दुःखका प्रभाव’ होता है । दुःखसे दुःखी होना और सुखकी इच्छा करना ‘दुःखका भोग’ है । दुःखके कारण की खोज करके उस को मिटाना ‘दुःखका प्रभाव’ है । यहाँ दुःखके प्रभावको ‘दुःखदोषानुदर्शनम्’ पदसे कहा गया है ।
दुःखका भोग करनेसे अर्थात् दुःखी होनेसे विवेक लुप्त हो जाता है । परन्तु दुःखका प्रभाव होनेसे विवेक लुप्त नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य विवेक-दृष्टिसे दुःखके कारणकी खोज करता है और खोज करके उसे मिटाता है । सुखकी इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है । कारणके मिटनेपर कार्य अपने-आप मिट जाता है । अतः सुखकी इच्छा मिटनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है ।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का ज्ञान कराने वाला होने से इन बीस साधनों को भी ‘ज्ञान’ नाम से कहा गया है । इससे जो विपरीत है, वह ‘अज्ञान’ है । साधन न करनेसे मनुष्य ज्ञानकी बातें तो सीख लेता है, पर अनुभव नहीं करता । अतः साधन न करनेसे अज्ञान (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञमें एकताका भाव) रहता है और अज्ञानके रहते हुए अगर कोई सीखकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागका विवेचन करता है तो वह वास्तवमें अपने देहाभिमानको ही पुष्ट करता है । परन्तु जो ये साधन करता है, उसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विभागका अनुभव हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।७।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।८।।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।९।।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।१०।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।११।।
मानित्व(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव) का न होना, दम्भित्व(दिखावटीपन) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहरभीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना।
इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बारबार देखना।
आसक्तिरहित होना पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलताप्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
मुझमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जनसमुदायमें प्रीतिका न होना।
अध्यात्मज्ञानमें नित्यनिरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना -- यह (पूर्वोक्त साधनसमुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है।
व्याख्या—
अब भगवान् क्षेत्रके साथ माने हुए सम्बन्ध (तादात्म्य)---को तोड़नेके लिये ज्ञानके साधन बताते हैं ।
एक ‘दुःखका भोग’ होता है और एक दुःखका प्रभाव’ होता है । दुःखसे दुःखी होना और सुखकी इच्छा करना ‘दुःखका भोग’ है । दुःखके कारण की खोज करके उस को मिटाना ‘दुःखका प्रभाव’ है । यहाँ दुःखके प्रभावको ‘दुःखदोषानुदर्शनम्’ पदसे कहा गया है ।
दुःखका भोग करनेसे अर्थात् दुःखी होनेसे विवेक लुप्त हो जाता है । परन्तु दुःखका प्रभाव होनेसे विवेक लुप्त नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य विवेक-दृष्टिसे दुःखके कारणकी खोज करता है और खोज करके उसे मिटाता है । सुखकी इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है । कारणके मिटनेपर कार्य अपने-आप मिट जाता है । अतः सुखकी इच्छा मिटनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है ।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का ज्ञान कराने वाला होने से इन बीस साधनों को भी ‘ज्ञान’ नाम से कहा गया है । इससे जो विपरीत है, वह ‘अज्ञान’ है । साधन न करनेसे मनुष्य ज्ञानकी बातें तो सीख लेता है, पर अनुभव नहीं करता । अतः साधन न करनेसे अज्ञान (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञमें एकताका भाव) रहता है और अज्ञानके रहते हुए अगर कोई सीखकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागका विवेचन करता है तो वह वास्तवमें अपने देहाभिमानको ही पुष्ट करता है । परन्तु जो ये साधन करता है, उसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विभागका अनुभव हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
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