॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ॥२०॥
परन्तु जो मुझमें श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा है, वैसा ही भलीभाँति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
व्याख्या- भगवान ने सिद्ध भक्तों के उनतालीस लक्षणों के पाँ प्रकरण कहे हैं- तेरहवें चौदहवें श्लोकों का पहला प्रकरण, पन्द्रहवें श्लोक का दूसरा प्रकरण, सोलहवें श्लोक का तीसरा प्रकरण, सत्रहवें श्लोक का चौथा प्रकरण और अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकों का पाँचवाँ प्रकरण। प्रत्येक प्रकरण के लक्षण धम्र्यामृत हैं। साधक भक्त जिस प्रकरण के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करता है, उसके लिये वही धम्र्यामृत है। ऐसे साधक भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं।
श्रद्धा साधक में होती है-‘श्रद्दधानाः’। सिद्ध में श्रद्धा नहीं होती, प्रत्युत अनुभव होता है; क्योंकि उसके अनुभव में एक परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, सब कुछ परमात्मा ही हैं, फिर वह श्रद्धा क्या करे? साधक की दृष्टि में दूसरी सत्ता रहती है, इसलिये वह श्रद्धापूर्वक उपासना करता है। दूसरी सत्ता की मान्यता रहते हुए भी साधक भगवान के परायण रहता है और भगवान के सिवाय दूसरा कोई उसका प्रेमास्पद नहीं होता, इसलिये वह भगवान को अत्यन्त प्रिय होता है।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः।।१२।।
ॐ तत्सत् !
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ॥२०॥
परन्तु जो मुझमें श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा है, वैसा ही भलीभाँति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
व्याख्या- भगवान ने सिद्ध भक्तों के उनतालीस लक्षणों के पाँ प्रकरण कहे हैं- तेरहवें चौदहवें श्लोकों का पहला प्रकरण, पन्द्रहवें श्लोक का दूसरा प्रकरण, सोलहवें श्लोक का तीसरा प्रकरण, सत्रहवें श्लोक का चौथा प्रकरण और अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकों का पाँचवाँ प्रकरण। प्रत्येक प्रकरण के लक्षण धम्र्यामृत हैं। साधक भक्त जिस प्रकरण के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करता है, उसके लिये वही धम्र्यामृत है। ऐसे साधक भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं।
श्रद्धा साधक में होती है-‘श्रद्दधानाः’। सिद्ध में श्रद्धा नहीं होती, प्रत्युत अनुभव होता है; क्योंकि उसके अनुभव में एक परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, सब कुछ परमात्मा ही हैं, फिर वह श्रद्धा क्या करे? साधक की दृष्टि में दूसरी सत्ता रहती है, इसलिये वह श्रद्धापूर्वक उपासना करता है। दूसरी सत्ता की मान्यता रहते हुए भी साधक भगवान के परायण रहता है और भगवान के सिवाय दूसरा कोई उसका प्रेमास्पद नहीं होता, इसलिये वह भगवान को अत्यन्त प्रिय होता है।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः।।१२।।
ॐ तत्सत् !
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