Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१६।।

वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं । वे जाननेयोग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करनेवाले, उनका भरणपोषण करने वाले और संहार करनेवाले हैं ।

व्याख्या—

जैसे संसार भौतिक दृष्टिसे एक है, ऐसे ही परमात्मा भी एक (अविभक्त) हैं । जैसे संसार भौतिक दृष्टिसे एक होते हुए भी अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिके रूपमें दीखता है, ऐसे ही परमात्मा एक होते हुए भी अनेक रूपोंमें दीखते हैं । तात्पर्य है कि परमात्मा एक होते हुए भी अनेक हैं और अनेक होते हुए भी एक हैं । वास्तविक सत्ता कभी दो हो सकती ही नहीं, क्योंकि दो होनेसे असत्‌ आ जायगा ।

उत्पन्न करनेवाले भी परमात्मा हैं और उत्पन्न होनेवाले भी परमात्मा हैं । भरण-पोषण करनेवाले भी परमात्मा हैं और जिनका भरण-पोषण होता है, वे भी परमात्मा हैं । संहार करनेवाले भी परमात्मा हैं और जिनका संहार होता है, वे भी परमात्मा हैं ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment