इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥ ४२॥
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥ ४३॥
इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा
सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो
बुद्धिसे भी पर है,
वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर (काम)-को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको
वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
व्याख्या—
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहम्-ये आठ प्रकारके
भेदोंवाली अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४) । बुद्धिसे भी पर जो अहम् है, उस
अहम्के जड़-अंशमें ‘काम’ रहता है । तात्पर्य है कि कामरूप विकार अपरा
प्रकृति (जड़)-में रहता है, परा प्रकृति (चेतन)-में नहीं । परन्तु अहम्के
साथ तादात्म्य करनेके कारण उस कामरूप विकारको चेतन (जीवात्मा) अपनेमें मान
लेता है । जबतक अहम्रूप जड़-चेतनका तादात्म्य रहता है, तबतक जड़ और चेतनके
विभागका ज्ञान नहीं होता । जबतक तादात्म्य है, तभीतक ‘काम’ है । तादात्म्य
टूटनेपर उस कामका स्थान ‘प्रेम’ ले लेता है । काममें संसारकी ओर आकर्षण
होता है और प्रेममें भगवान्की ओर ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम
तृतीयोऽध्याय:॥ ३॥