Friday, 20 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०३)


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ ७॥
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हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आप को (साकाररूप से) प्रकट करता हूँ।

ॐ तत्सत् !

Thursday, 19 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०२)

अर्जुन उवाच

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ ४॥

श्रीभगवानुवाच

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥ ५॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥ ६॥

अर्जुन बोले—

आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है; अत: आपने ही सृष्टि के आरम्भ में (सूर्यसे) यह योग कहा था—यह बात मैं कैसे समझूँ ?

श्रीभगवान् बोले—

हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब को मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।

मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday, 17 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०१)

श्रीभगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप॥ २॥
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥ ३॥

श्रीभगवान् बोले —
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्य से कहा था। फिर सूर्य ने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा।
हे परन्तप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्म-योगको राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया।
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।

व्याख्या—

पूर्वपक्ष- अव्यय (नित्य) तो साध्य होता है, साधन कैसे अव्यय होगा ?

उत्तरपक्ष- साधक ही साधन होकर साध्यमें लीन होत है । अतः साधक, साधन और साध्य-तीनों ही एक होनेसे अव्यय हैं; परन्तु मोहके कारण तीनों अलग-अलग दीखते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Monday, 16 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२८)

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥ ४२॥
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥ ४३॥

इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी पर है,
वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर (काम)-को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।

व्याख्या—

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहम्‌-ये आठ प्रकारके भेदोंवाली अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४) । बुद्धिसे भी पर जो अहम्‌ है, उस अहम्‌के जड़-अंशमें ‘काम’ रहता है । तात्पर्य है कि कामरूप विकार अपरा प्रकृति (जड़)-में रहता है, परा प्रकृति (चेतन)-में नहीं । परन्तु अहम्‌के साथ तादात्म्य करनेके कारण उस कामरूप विकारको चेतन (जीवात्मा) अपनेमें मान लेता है । जबतक अहम्‌रूप जड़-चेतनका तादात्म्य रहता है, तबतक जड़ और चेतनके विभागका ज्ञान नहीं होता । जबतक तादात्म्य है, तभीतक ‘काम’ है । तादात्म्य टूटनेपर उस कामका स्थान ‘प्रेम’ ले लेता है । काममें संसारकी ओर आकर्षण होता है और प्रेममें भगवान्‌की ओर ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम
तृतीयोऽध्याय:॥ ३॥

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२७)

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥ ४०॥
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥ ४१॥

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के वास-स्थान कहे गये हैं। यह कामना इन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि)-के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्य को मोहित करती है।

इसलिये हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

व्याख्या—

काम पाँच स्थानों में दीखता है-

(१) विषयों में (गीता ३ । ३४),
(२) इन्द्रियों में,
(३) मन में,
(४) बुद्धि में और
(५) अहम्‌ (जड़-चेतनके तादात्म्य)-में (गीता २ । ५९) ।

इन पाँच स्थानों में दीखने के कारण ये पाँचों काम के वासस्थान कहे गये हैं । मूल में काम ‘अहम्‌’ में ही रहता है (गीता ३ । ४२-४३) ।

संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है-यह ज्ञान है । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं-यह विज्ञान है । काम साधकको न तो ‘ज्ञान’ प्राप्त करने देता है, न ‘विज्ञान’ ।

ॐ तत्सत् !