Friday, 27 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१२)


यस्य सर्वे समारम्भा: कामसङ्कल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥ १९॥

जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।

व्याख्या—

जो कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त (संकल्प और कामनासे रहित) रहता है और निर्लिप्त रहते हुए सब कर्म करता है, वह सम्पूर्ण ज्ञानियोंमें श्रेष्ट है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.११)


कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥ १८॥

जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है।

व्याख्या—

कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना अर्थात्‌ कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा न रखना ‘कर्ममें अकर्म’ देखना है । निर्लिप्त रहते हुए अर्थात्‌ कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म करना ‘अकर्ममें कर्म’ देखना है । इन दोनोंसे ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है । कर्मयोगी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए, प्रत्येक अवस्थामें निर्लिप्त रहता है- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३ । १८) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१०)


किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १६॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:॥ १७॥

कर्म क्या है और अकर्म क्या है—इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अत: वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन)-से मुक्त हो जायगा।
कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है।

व्याख्या—

कामनाके कारण क्रिया ही फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । कामना बढ़नेपर ‘विकर्म’ (पाप) होते हैं । कामना का सर्वथा नाश होनेपर सभी कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात्‌ फल देने वाले नहीं होते ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday, 24 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०९)


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥ १३॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ १४॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥ १५॥

मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान! कारण कि कर्मों के फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।
पूर्वकालके मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जानेवाले कर्मों को ही (उन्हीं की तरह) कर।

व्याख्या—

चारों वर्णोंकी रचना मेरे द्वारा की गयी है- इस भगवद्वचन से सिद्ध होता है कि वर्ण जन्मसे होता है, कर्मसे नहीं । कर्मसे तो वर्णकी रक्षा होती है ।

जैसे सृष्टि-रचनारूप कर्म करने पर भी भगवान्‌ अकर्ता ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान्‌का अंश जीव भी कर्म करते हुए अकर्ता ही रहता है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । परन्तु जीव अहम्‌ से सम्बन्ध जोड़कर अज्ञानवश अपने को कर्ता मान लेता है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) ।

भगवान्‌ का मत है कि मुमुक्षा जाग्रत होनेपर भी कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्ति का त्याग करके कर्तव्यकर्म करते रहना चाहिये । कर्म करने से बन्धन होता है, पर कर्मयोगसे मोक्ष (विश्राम) प्राप्त होता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०८)



कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥



कर्मो की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।

व्याख्या- मनुष्यलोक में सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है; परन्तु परिणाम में वह बन्धन कारक होती है। जैसे, एलोपैथिक दवा जल्दी असर करती है, पर परिणाम में वह शरीर के लिये हानिकारक होती है। परन्तु आयुर्वेदिक दवा देर से असर करती है, पर परिणाम में वह लाभदायक होती है। जनकादि महापुरुषों ने निष्काम कर्म (कर्मयोग) से संसिद्धि (सम्यक सिद्धि अर्थात मुक्ति) प्राप्त की थी- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’[4]। सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि नाशवान होती है, और निष्काम कर्मों से होने वाली सिद्धि अविनाशी होती है।

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०७)


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ ११॥

हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।

व्याख्या—

यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही हैं-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ (गीता ७ । १९), तथापि मनुष्य जिस भावसे देखता है, भगवान्‌ भी उसके सामने उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं-
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
...............(मानस, बाल० २४१ । २).

जीव जगत्‌को धारण करता है-‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) तो भगवान्‌ जगद्‌रूपसे प्रकट हो जाते हैं । नास्तिक भगवान्‌को नहीं मानता तो भगवान्‌ उसके सामने ‘नहीं’- रूपसे प्रकट हो जाते हैं । चोर भगवान्‌ की मूर्तिमें भगवान्‌को न देखकर पत्थर, स्वर्ण आदिको देखता है तो भगवान्‌ उसके लिये पत्थर, स्वर्ण आदिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०६)


वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता:।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:॥ १०॥

राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मुझ में तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०५)


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ ९॥

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।

व्याख्या—

अवतारकालमें भगवान्‌ मनुष्योंके कल्याणके लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं । जन्म और कर्मसे सर्वथा रहित होने पर भी भगवान्‌ अपनी प्रकृतिकी सहायतासे जन्म और कर्मकी लीला करते हुए दीखते हैं-यह भगवान्‌के जन्म और कर्मकी अलौकिकता है । साधक भी यदि अपरा प्रकृतिके अहम्‌के साथ अपने तादात्म्यका त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित होने पर उसके कर्म भी दिव्य हो जायँगे । कर्मोंका अकर्म होना ही कर्मोंका दिव्य होना है । यह दिव्यता कर्मयोगसे आती है ।

ॐ तत्सत् !

Monday, 23 January 2017

गीता प्रबोधनी चौथा अध्याय (पोस्ट.०४)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥८॥

साधुओं (भक्तों) की रक्षा करने के लिये, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

व्याख्या- परमात्मा अक्रिय हैं; अतः अवतार लेकर क्रिया (लीला) करने के लिये वे अपनी प्रकृति की सहायता लेते हैं। अवतार में सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्मा के द्वारा की जाती हुई दीखने पर भी वास्तव में वे क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही की जाती हैं। इसलिये सीताजी ने कहा है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ मैंने ही की हैं, भगवान राम ने नहीं-

एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि।।

(भगवान श्रीराम के अवातर लेने से लेकर राज्यपद पर अभिषिक्त होने तक के) सम्पूर्ण कार्य यद्यपि मेरे ही किये हुए हैं, तो भी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा भगवान में आरोपित करते हैं।