Tuesday, 24 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०५)


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ ९॥

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।

व्याख्या—

अवतारकालमें भगवान्‌ मनुष्योंके कल्याणके लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं । जन्म और कर्मसे सर्वथा रहित होने पर भी भगवान्‌ अपनी प्रकृतिकी सहायतासे जन्म और कर्मकी लीला करते हुए दीखते हैं-यह भगवान्‌के जन्म और कर्मकी अलौकिकता है । साधक भी यदि अपरा प्रकृतिके अहम्‌के साथ अपने तादात्म्यका त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित होने पर उसके कर्म भी दिव्य हो जायँगे । कर्मोंका अकर्म होना ही कर्मोंका दिव्य होना है । यह दिव्यता कर्मयोगसे आती है ।

ॐ तत्सत् !

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