Monday, 23 January 2017

गीता प्रबोधनी चौथा अध्याय (पोस्ट.०४)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥८॥

साधुओं (भक्तों) की रक्षा करने के लिये, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

व्याख्या- परमात्मा अक्रिय हैं; अतः अवतार लेकर क्रिया (लीला) करने के लिये वे अपनी प्रकृति की सहायता लेते हैं। अवतार में सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्मा के द्वारा की जाती हुई दीखने पर भी वास्तव में वे क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही की जाती हैं। इसलिये सीताजी ने कहा है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ मैंने ही की हैं, भगवान राम ने नहीं-

एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि।।

(भगवान श्रीराम के अवातर लेने से लेकर राज्यपद पर अभिषिक्त होने तक के) सम्पूर्ण कार्य यद्यपि मेरे ही किये हुए हैं, तो भी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा भगवान में आरोपित करते हैं।

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