ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ ११॥
हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
व्याख्या—
यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही हैं-‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९), तथापि मनुष्य जिस भावसे देखता है, भगवान् भी उसके सामने उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं-
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
...............(मानस, बाल० २४१ । २).
जीव जगत्को धारण करता है-‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) तो भगवान् जगद्रूपसे प्रकट हो जाते हैं । नास्तिक भगवान्को नहीं मानता तो भगवान् उसके सामने ‘नहीं’- रूपसे प्रकट हो जाते हैं । चोर भगवान् की मूर्तिमें भगवान्को न देखकर पत्थर, स्वर्ण आदिको देखता है तो भगवान् उसके लिये पत्थर, स्वर्ण आदिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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