Friday, 27 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.११)


कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥ १८॥

जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है।

व्याख्या—

कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना अर्थात्‌ कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा न रखना ‘कर्ममें अकर्म’ देखना है । निर्लिप्त रहते हुए अर्थात्‌ कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म करना ‘अकर्ममें कर्म’ देखना है । इन दोनोंसे ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है । कर्मयोगी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए, प्रत्येक अवस्थामें निर्लिप्त रहता है- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३ । १८) ।

ॐ तत्सत् !

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