Tuesday, 24 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०९)


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥ १३॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ १४॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥ १५॥

मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान! कारण कि कर्मों के फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।
पूर्वकालके मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जानेवाले कर्मों को ही (उन्हीं की तरह) कर।

व्याख्या—

चारों वर्णोंकी रचना मेरे द्वारा की गयी है- इस भगवद्वचन से सिद्ध होता है कि वर्ण जन्मसे होता है, कर्मसे नहीं । कर्मसे तो वर्णकी रक्षा होती है ।

जैसे सृष्टि-रचनारूप कर्म करने पर भी भगवान्‌ अकर्ता ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान्‌का अंश जीव भी कर्म करते हुए अकर्ता ही रहता है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । परन्तु जीव अहम्‌ से सम्बन्ध जोड़कर अज्ञानवश अपने को कर्ता मान लेता है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) ।

भगवान्‌ का मत है कि मुमुक्षा जाग्रत होनेपर भी कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्ति का त्याग करके कर्तव्यकर्म करते रहना चाहिये । कर्म करने से बन्धन होता है, पर कर्मयोगसे मोक्ष (विश्राम) प्राप्त होता है ।

ॐ तत्सत् !

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