॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।८।।
तू अपनी इस आँख से अर्थात् चर्मचक्षु से मुझे देख ही नहीं सकता। इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वरसम्बन्धी सामर्थ्य को देख ।
व्याख्या—
‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं-जानना और देखना । पहले (गीता ९ । ५ में) ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ पदोंसे भगवान् को जानने की बात आयी है और यहाँ इस पदों से देखने की बात आयी है । तात्पर्य यह हुआ कि जो जानने में आता है, वह भी भगवान् हैं और जो देखने में आता है, वह भी भगवान् हैं । इतना ही नहीं, जानने और देखने के सिवाय भी जो कुछ है, वह भगवान् ही हैं- ‘सद्सत्तत्परं यत्’ (गीता ११ । ३७)।
ॐ तत्सत् !
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।८।।
तू अपनी इस आँख से अर्थात् चर्मचक्षु से मुझे देख ही नहीं सकता। इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वरसम्बन्धी सामर्थ्य को देख ।
व्याख्या—
‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं-जानना और देखना । पहले (गीता ९ । ५ में) ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ पदोंसे भगवान् को जानने की बात आयी है और यहाँ इस पदों से देखने की बात आयी है । तात्पर्य यह हुआ कि जो जानने में आता है, वह भी भगवान् हैं और जो देखने में आता है, वह भी भगवान् हैं । इतना ही नहीं, जानने और देखने के सिवाय भी जो कुछ है, वह भगवान् ही हैं- ‘सद्सत्तत्परं यत्’ (गीता ११ । ३७)।
ॐ तत्सत् !
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