Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।५।।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।६।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।७।।

अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकों को (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।
परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग (सम्बन्ध) -से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
हे पार्थ ! मुझमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसारसमुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।

व्याख्या—

निर्गुणोपासना में जो देहसहित है, वह उपासक (जीव) है और जो देहरहित है, वह उपास्य (ब्रह्म) है । देह के साथ माना हुआ सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्म की एकता में मुख्य बाधक है । इसलिये देहाभिमानी के लिये निर्गुणोपासना की सिद्धि कठिनता से और देरी से होती है । परन्तु सगुणोपासना में भगवान्‌ की विमुखता ही बाधक है, देहाभिमान नहीं । इसलिये सगुणोपासक संसार से विमुख होकर भगवान्‌ के सम्मुख हो जाता है और साधन के आश्रित न होकर भगवान्‌ के आश्रित हो जाता है । अतः भगवान्‌ कृपा करके शीघ्र ही उद्धार कर देते हैं (गीता ८ । १४, १२ । ७) । यह सगुणोपासना की विलक्षणता है ।

जैसे ज्ञानयोगी क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा होनेवाली समझकर तथा अपने को उनसे सर्वथा असंग अनुभव करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है, ऐसे ही भक्तियोगी अपनी क्रियाओं को भगवान्‌ के अर्पण करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ।
‘मैं केवल भगवान्‌ का ही हूँ, और किसी का नहीं हूँ तथा केवल भगवान्‌ ही मेरे अपने हैं, और कोई भी मेरा अपना नहीं है’- ऐसा मानना ही अनन्ययोग से भगवान्‌ की उपासना करना है ।

छठे अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान्‌ ने सामान्य साधकों के लिये अपने द्वारा अपना उद्धार करनेकी बात कही थी-- ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्‌’ और यहाँ कहते हैं कि भक्तों का उद्धार मैं करता हूँ । इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक साधक आरम्भ में स्वयं ही साधन में लगता है । परन्तु जो साधक भगवान्‌ के आश्रित होता है, उसका उद्धार भगवान्‌ करते हैं । वह तो अपने उद्धार की चिन्ता न करके केवल भगवान्‌ के भजनमें ही लगा रहता है । उसका साधन और साध्य भगवान्‌ ही होते हैं ।

ॐ तत्सत् !

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