Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।९।।

अगर तू मन को मुझ में अचलभाव से स्थिर (अर्पण) करने में समर्थ नहीं है, तो हे धनञ्जय ! अभ्यासयोग के द्वारा तू मेरी प्राप्ति की इच्छा कर ।

व्याख्या—

एकमात्र भगवत्‌प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया भजन, नाम-जप आदि ‘अभ्यासयोग’ है । यदि केवल अभ्यास हो, योग न हो तो एक नयी स्थिति बनेगी, कल्याण नहीं होगा । मन का निरोध करना अथवा मन को बार-बार भगवान्‌ में लगाना अभ्यास है (गीता ६ । २६) । परन्तु अभ्यासयोग में मन का निरोध नहीं है, प्रत्युत मन से सम्बन्ध-विच्छेद है ।

ॐ तत्सत् !

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