Friday, 12 May 2017

गीता प्रबोधनी - पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।१।।

श्रीभगवान् बोले –

ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जाननेवाला है ।

व्याख्या—

परिवर्तनशील होने पर भी संसारको ‘अव्यय’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी कुछ व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात्‌ अन्त नहीं होता । जैसे समुद्रके ऊपर कितनी लहरें उठती दीखती हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर उसका जल उतना ही रहता है, घटता-बढ़ता नहीं । ऐसे ही निरन्तर परिवर्तन दीखने पर भी संसार अव्यय ही रहता है ।

परिवर्तनशील संसार भी परमात्मा की शक्ति ‘अपरा प्रकृति’ का कार्य होने से परमात्मा का ही स्वरूप है-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । परिवर्तनरूप अपरा प्रकृति भी परमात्मा का स्वरूप है । यह संसार उस परमात्मा की ही लहरें हैं । जैसे ऊपरसे लहरें दीखनेपर भी समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं है, भीतर से समुद्र सम-शान्त है, ऐसे ही ऊपर से संसार परिवर्तनशील दीखते हुए भी भीतर से एक सम, शान्त परमात्मातत्त्व है (गीता १३ । २७) । तात्पर्य यह हुआ कि संसार संसाररूप से अव्यय नहीं है, प्रत्युत भगवद्‌रूप से अव्यय है ।

ॐ तत्सत् !



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