॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ अशुभ कर्मों में रागद्वेष का त्यागी है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
व्याख्या—
हर्ष और शोक, राग और द्वेष- ये द्वन्द्व हैं । भक्त में कोई भी द्वन्द्व नहीं रहता, वह निर्द्वन्द्व हो जाता है । उसके सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेष से रहित होते हैं ।
ॐ तत्सत् !
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।१७।।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ अशुभ कर्मों में रागद्वेष का त्यागी है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
व्याख्या—
हर्ष और शोक, राग और द्वेष- ये द्वन्द्व हैं । भक्त में कोई भी द्वन्द्व नहीं रहता, वह निर्द्वन्द्व हो जाता है । उसके सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेष से रहित होते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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