॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।
सब प्राणियों में द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है ।
व्याख्या—
गीतामें मित्रता और करुणा न कर्मयोगी के लक्षणों में आयी है, न ज्ञानयोगी के लक्षणों में, प्रत्युत केवल भक्त के लक्षणोंमें आयी है । कर्मयोगी और ज्ञानयोगी में समता तो होती है, पर मित्रता और करुणा नहीं होती । परन्तु भक्त में आरम्भ से ही मित्रता और करुणा होती है ।
भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर कौन वैर करे, किससे करे और क्यों करे ? ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत् केहि सन करहिं विरोध’ (मानस, उत्तर० ११२ ख) । यद्यपि ज्ञानयोगी का भी किसी से किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होता, तथापि उसमें स्वाभाविक उदासीनता, तटस्थता रहती है । ज्ञानमार्ग में वैराग्य की मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है इसलिये ज्ञानयोगी के भीतर कठोरता न होने पर भी वैराग्य, उदासीनता के कारण बाहर से कठोरता प्रतीत होती है ।
प्रत्येक साधक के लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है । इसलिये गीता में भगवान् ने कर्मयोग (२ । ७१), ज्ञानयोग (१८ । ५३) और भक्तियोग (१२ । १३)--- तीनों ही योगमार्गों में निर्मम और निरहंकार होने की बात कही है । कारण कि वास्तव में हमारा स्वरूप निर्मम-निरहंकार है ।
भगवान् में ज्ञान की भूख तो नहीं है, पर प्रेम की भूख अवश्य है । कारण कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है, ज्ञान नहीं । इसलिये भगवान् कहते हैं कि मुझमें अर्पित मन-बुद्धिवाला भक्त मुझे प्रिय है ।
ॐ तत्सत् !
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।१३।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१४।।
सब प्राणियों में द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है ।
व्याख्या—
गीतामें मित्रता और करुणा न कर्मयोगी के लक्षणों में आयी है, न ज्ञानयोगी के लक्षणों में, प्रत्युत केवल भक्त के लक्षणोंमें आयी है । कर्मयोगी और ज्ञानयोगी में समता तो होती है, पर मित्रता और करुणा नहीं होती । परन्तु भक्त में आरम्भ से ही मित्रता और करुणा होती है ।
भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर कौन वैर करे, किससे करे और क्यों करे ? ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत् केहि सन करहिं विरोध’ (मानस, उत्तर० ११२ ख) । यद्यपि ज्ञानयोगी का भी किसी से किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होता, तथापि उसमें स्वाभाविक उदासीनता, तटस्थता रहती है । ज्ञानमार्ग में वैराग्य की मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है इसलिये ज्ञानयोगी के भीतर कठोरता न होने पर भी वैराग्य, उदासीनता के कारण बाहर से कठोरता प्रतीत होती है ।
प्रत्येक साधक के लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है । इसलिये गीता में भगवान् ने कर्मयोग (२ । ७१), ज्ञानयोग (१८ । ५३) और भक्तियोग (१२ । १३)--- तीनों ही योगमार्गों में निर्मम और निरहंकार होने की बात कही है । कारण कि वास्तव में हमारा स्वरूप निर्मम-निरहंकार है ।
भगवान् में ज्ञान की भूख तो नहीं है, पर प्रेम की भूख अवश्य है । कारण कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है, ज्ञान नहीं । इसलिये भगवान् कहते हैं कि मुझमें अर्पित मन-बुद्धिवाला भक्त मुझे प्रिय है ।
ॐ तत्सत् !
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