Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।४।।

हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीजस्थापन करने वाला पिता हूँ ।

व्याख्या—

चौरासी लाख योनियाँ, देवता, पितर, गन्धर्व, भूत-प्रेत, पिशाच, स्थावर-जंगम, जलचर-थलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-उद्भिज-स्वेदज आदि सम्पूर्ण योनियों के जितने भी मूर्त-अमूर्त, व्यक्त-अव्यक्त शरीर हैं, उन सबमें भगवान्‌ अपने चेतन-अंशरूप बीज को स्थापित करते हैं । इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित परमात्मा का अंश शरीरों की भिन्नता से ही भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है । वास्तव में सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है (गीता १३ । २) ।

ॐ तत्सत् !

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