Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।२६।।

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो।

व्याख्या—

चर-अचर, स्थावर-जंगम आदि जितने भी प्राणी हैं, वे सब-के-सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के सम्बन्धसे ही पैदा होते हैं । क्षेत्रज्ञ (प्रकृतिस्थ पुरुष) शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मान लेता है-- यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग है ।

पूर्वपक्ष—

संयोग सजातीयता में ही होता है, फिर विजातीय क्षेत्र (जड़)-के साथ क्षेत्रज्ञ (चेतन)-का संयोग कैसे सम्भव है ?

उत्तरपक्ष—

ठीक है, जैसे अंधकार और सूर्य का संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भी संयोग नहीं हो सकता, तथापि परमात्मा का अंश होने के कारण क्षेत्रज्ञ (जीव)-में यह शक्ति है कि वह विजातीय वस्तु को भी पकड़ सकता है, उसके साथ अपना सम्बन्ध मान सकता है । उसे यह स्वतन्त्रता परमात्मा के द्वारा प्रदत्त है । इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ही क्षेत्रज्ञ ने संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और जन्म-मरणके चक्रमें पड़ गया (गीता १३ । २१) ।

ॐ तत्सत् !

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