॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।१२।।
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस(परमात्मतत्त्व) को मैं अच्छी तरह से कहूँगा? जिस को जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेयतत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
व्याख्या—
गीतामें एक ही समय परमात्मा का तीन प्रकारसे वर्णन हुआ है-
(१) परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं-‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९) ।
(२) परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत्से पर भी हैं-‘सद्सत्तत्परं यत्’ (११ । ३७)
(३) परमात्मा न सत् हैं और न असत् ही हैं-‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) ।
---इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक अनिर्वचनीय परमात्मतत्त्वके सिवाय कुछ नहीं है । वह मन, बुद्धि, वाणीसे सर्वथा अतीत है, इसलिये उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, पर उसे प्राप्त किया जा सकता है ।
परमात्मतत्त्व को असत् की अपेक्षा से सत्, जड़ की अपेक्षा से चेतन, विकार की अपेक्षा से निर्विकार, एकदेशीय की अपेक्षा से सर्वदेशीय, ‘नहीं’ की अपेक्षा से ‘है’, गुणों की सगुण-निर्गुण, आकार की अपेक्षा से साकार-निराकार, अनेक की अपेक्षा से एक, प्रकाश्य की अपेक्षा से प्रकाशक, नाशवान् की अपेक्षा से अविनाशी आदि कह देते हैं, पर वास्तव में उस तत्त्वमें कोई शब्द लागू होता ही नहीं ! कारण कि सभी शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, पर तत्त्व निरपेक्ष और प्रकृतिसे अतीत है । देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, गुण आदिको लेकर ही संज्ञा बनती है । परमात्मामें देश, काल आदि हैं ही नहीं, फिर उनकी संज्ञा कैसी ? इसलिये यहाँ आया है कि उस तत्त्वको सत् अथवा असत् कुछ भी कहा नहीं जा सकता ।
परमात्मतत्त्वका आदि (आरम्भ) नहीं है । जो सदासे है, उसका आदि कैसे ? सब अपर हैं, वह पर है । आदि-अनादि, पर-अपर आदिका भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है । वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर, सत्-असत् आदिसे विलक्षण है । इस प्रकार भगवान्ने ज्ञेयतत्त्वका वर्णन करनेकी बात कही है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक अर्थात् लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाली है । इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं । इसलिये साधक को भी लक्षक की दृष्टि से विचार करना चाहिये, केवल सीखने की दृष्टि से नहीं ।
ॐ तत्सत् !
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।१२।।
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस(परमात्मतत्त्व) को मैं अच्छी तरह से कहूँगा? जिस को जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेयतत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
व्याख्या—
गीतामें एक ही समय परमात्मा का तीन प्रकारसे वर्णन हुआ है-
(१) परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं-‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९) ।
(२) परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत्से पर भी हैं-‘सद्सत्तत्परं यत्’ (११ । ३७)
(३) परमात्मा न सत् हैं और न असत् ही हैं-‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) ।
---इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक अनिर्वचनीय परमात्मतत्त्वके सिवाय कुछ नहीं है । वह मन, बुद्धि, वाणीसे सर्वथा अतीत है, इसलिये उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, पर उसे प्राप्त किया जा सकता है ।
परमात्मतत्त्व को असत् की अपेक्षा से सत्, जड़ की अपेक्षा से चेतन, विकार की अपेक्षा से निर्विकार, एकदेशीय की अपेक्षा से सर्वदेशीय, ‘नहीं’ की अपेक्षा से ‘है’, गुणों की सगुण-निर्गुण, आकार की अपेक्षा से साकार-निराकार, अनेक की अपेक्षा से एक, प्रकाश्य की अपेक्षा से प्रकाशक, नाशवान् की अपेक्षा से अविनाशी आदि कह देते हैं, पर वास्तव में उस तत्त्वमें कोई शब्द लागू होता ही नहीं ! कारण कि सभी शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, पर तत्त्व निरपेक्ष और प्रकृतिसे अतीत है । देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, गुण आदिको लेकर ही संज्ञा बनती है । परमात्मामें देश, काल आदि हैं ही नहीं, फिर उनकी संज्ञा कैसी ? इसलिये यहाँ आया है कि उस तत्त्वको सत् अथवा असत् कुछ भी कहा नहीं जा सकता ।
परमात्मतत्त्वका आदि (आरम्भ) नहीं है । जो सदासे है, उसका आदि कैसे ? सब अपर हैं, वह पर है । आदि-अनादि, पर-अपर आदिका भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है । वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर, सत्-असत् आदिसे विलक्षण है । इस प्रकार भगवान्ने ज्ञेयतत्त्वका वर्णन करनेकी बात कही है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक अर्थात् लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाली है । इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं । इसलिये साधक को भी लक्षक की दृष्टि से विचार करना चाहिये, केवल सीखने की दृष्टि से नहीं ।
ॐ तत्सत् !
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