Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।१७।।

वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों का भी ज्योति और अज्ञान से अत्यन्त परे कहा गया है । वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान (साधनसमुदाय) से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान है ।

व्याख्या—

बारहवें से सत्रहवें श्लोक तक जिस ज्ञेय-तत्त्व का वर्णन हुआ है, वह भगवान्‌ का समग्ररूप ही है । कारण कि इसमें निर्गुण-निराकार (बारहवाँ श्लोक), सगुण-निराकार (तेरहवाँ श्लोक) और सगुण-साकार (सोलहवाँ श्लोक)-तीनों ही रूपोंका वर्णन हुआ है ।

‘ज्योति’ नाम प्रकाश (ज्ञान)-का है । शब्दका प्रकाशक कान है । स्पर्शका प्रकाशक त्वचा है । रूपका प्रकाशक नेत्र है । रसका प्रकाशक जिह्वा है । गन्धका प्रकाशक नासिका है । इन पाँचों इन्द्रियोंका प्रकाशक मन है । मनका प्रकाशक बुद्धि है । बुद्धिका प्रकाशक स्वयं है । स्वयंका प्रकाशक परमात्मा है । स्वयंप्रकाश परमात्माका कोई भी प्रकाशक नहीं है । जैसे सूर्यमें अन्धकार कभी आता नहीं, ऐसे ही परम-प्रकाशक परमात्मामें अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

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