॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।
अगर मेरे योग(समता) के आश्रित हुआ तू इस(पूर्वश्लोक में कहे गये साधन) को भी करने में असमर्थ है, तो मन इन्द्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर।
व्याख्या—
यदि साधक सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् के अर्पण न कर सके अर्थात् भगवान् के लिए सभी कर्म न कर सके तो उसे फलेच्छा का त्याग करके कर्तव्य-कर्म करने चाहिये; क्योंकि फलेच्छा ही बाँधनेवाली है--‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । फल की इच्छा का त्याग करके कर्तव्यकर्म करने से उसका संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।
अगर मेरे योग(समता) के आश्रित हुआ तू इस(पूर्वश्लोक में कहे गये साधन) को भी करने में असमर्थ है, तो मन इन्द्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर।
व्याख्या—
यदि साधक सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् के अर्पण न कर सके अर्थात् भगवान् के लिए सभी कर्म न कर सके तो उसे फलेच्छा का त्याग करके कर्तव्य-कर्म करने चाहिये; क्योंकि फलेच्छा ही बाँधनेवाली है--‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । फल की इच्छा का त्याग करके कर्तव्यकर्म करने से उसका संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !
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