॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः* पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।१४।।
प्राणियों के शरीर में रहनेवाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
व्याख्या—
पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करना, चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों का पोषण करना, फिर उनको खानेवाले प्राणियों के भीतर जठराग्नि होकर खाये हुए अन्न को पचाना आदि सम्पूर्ण कार्य भगवान् की ही शक्ति से होते हैं । परन्तु मनुष्य व्यर्थ में ही अभिमान कर लेता है; जैसे बैलगाड़ी के नीचे छाया में चलने वाला कुत्ता समझता है कि बैलगाड़ी मैं चलाता हूँ !
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* गीता में सब जगह प्राण और अपान—इन दोनों का ही वर्णन हुआ है ; जैसे—
(१).अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणाऽपानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ||....(४.२९)
(२).प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यांतरचारिणौ ||...(५.२७)
ॐ तत्सत् !
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