Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।३३।।

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।

व्याख्या—

जैसे,सूर्य के प्रकाश में सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं । सूर्य के प्रकाश में कोई वेद का पाठ करता है, कोई शिकार करता है । परन्तु सूर्य को उन क्रियाओं का न तो पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य उन क्रियाओं का न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है । इसी प्रकार आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरों को सत्ता-स्फूर्ति तो देता है, पर वास्तव में वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है (गीता १८ । १७), तात्पर्य है कि स्वयं में प्रकाशकतत्त्व का अभिमान नहीं है ।

करने की जिम्मेवारी उसी पर होती है, जो कुछ कर सकता है । जैसे, कितना ही चतुर चित्रकार हो, बिना सामग्रि (रंग, ब्रश आदि)-के वह चित्र नहीं बना सकता, ऐसे ही पुरुष (चेतन) प्रकृति (जड़ शरीरादि) की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकता । इसलिये कुछ-न-कुछ करनेमें ही शरीरका उपयोग है । यदि हम कुछ भी न करना चाहें तो शरीर का क्या उपयोग है ? कुछ भी उपयोग नहीं है । यदि हम कुछ भी देखना न चाहें तो आँख हमारे क्या काम आयी ? कुछ भी सुनना न चाहें तो कान हमारे क्या काम आया ? स्थूल क्रिया करनेमें स्थूलशरीर काम आता है । चिन्तन, मनन, ध्यान आदि करनेमें सूक्ष्मशरीर काम आता है । स्थिरता, समाधिमें कारणशरीर काम आता है । शरीर और उसके द्वारा होने वाली क्रियाएँ संसार के काम आती हैं । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है; अतः उसके लिये तीनों शरीर और उसकी क्रियाएँ कुछ काम नहीं आतीं । चिन्मय सत्तामात्र में कोई कमी नहीं आती; क्योंकि सत्ता एक ही हो सकती है, दो हो सकती ही नहीं । अतः हमें किसी साथी की जरूरत नहीं है । इस प्रकार न तो क्रिया के साथ सम्बन्ध (कर्तृत्व) हो, न अप्राप्त वस्तु के साथ सम्बन्ध (कामना) हो और न प्राप्त वस्तु के साथ सम्बन्ध (ममता) हो तो प्रकृति के साथ तादात्म्य नहीं रहेगा । प्रकृति से तादात्म्य न रहने पर प्रकृति में क्रिया तो रहती है, पर कोई कर्ता और भोक्ता नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment