Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।। २ ।।

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है ? वही मेरे मत में ज्ञान है।

व्याख्या—

क्षेत्र (शरीर)-की तो अनन्त ब्रह्माण्डोंके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा)-की अनन्त-अपार-असीम ब्रह्मके साथ एकता है । तात्पर्य है कि क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म एक ही हैं । एक क्षेत्रके सम्बन्धसे वही ‘क्षेत्रज्ञ’ है और सम्पूर्ण क्षेत्रोंके सम्बन्ध से रहित होनेपर वही ‘ब्रह्म’ है ।

ब्रह्मके लिये ‘माम्‌’ कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्म और ईश्‍वर दो नहीं हैं, प्रत्युत् एक ही हैं (गीता ९ । ४) । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें जो निर्लिप्तरूपसे सर्वत्र परिपूर्ण चिन्मय सत्ता है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डोंका स्वामी है, वह ईश्‍वर है ।

ॐ तत्सत् !

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