Monday, 8 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.३३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।४७।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।४८।।

श्रीभगवान् बोले –

हे अर्जुन मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्य से यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेजोमय, सब का आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसीने नहीं देखा है ।
हे कुरुश्रेष्ठ ! मनुष्यलोक में इस प्रकार के विश्वरूपवाला मैं न वेदों के पढ़ने से, न यज्ञों के अनुष्ठान से, न शास्त्रों के अध्ययन से,न दान से, न उग्र तपोंसे और न मात्र क्रियाओं से तेरे (कृपापात्रके) सिवाय और किसी के द्वारा देखा जा सकता हूँ ।

ॐ तत्सत् !

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