॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।६।।
हे पापरहित अर्जुन ! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है । वह सुख और ज्ञान की आसक्ति से (देहीको) बाँधता है ।
व्याख्या—
गुणातीत होने के बहुत समीप होने के कारण सत्त्वगुण को अनामय (निर्विकार) कहा गया है । परन्तु सुख और ज्ञान के संग के कारण वह विकारी हो जाता है; क्योंकि संग रजोगुण का स्वरूप है । सुख और ज्ञान बाधक नहीं हैं, प्रत्युत उनका संग बाधक है । संग है-उनको अपना मान लेना । वास्तव में सत्त्वगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है । अतः जब तक संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती; क्योंकि स्वरूप असंग है ।
सात्त्विक ज्ञान में तो ‘मैं ज्ञानी हूँ’-यह संग रहता है, पर तत्त्वज्ञान सर्वथा असंग है अर्थात् तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ज्ञानी हूँ’- यह संग नहीं रहता । सात्त्विक ज्ञान में द्रष्टा रहता है और अपने में विशेषता का भान होता है, परन्तु तत्त्वज्ञान में कोई द्रष्टा नहीं रहता और अपने में कोई कमी भी नहीं रहती तथा (व्यक्तित्व न रहनेसे) विशेषता का भान भी नहीं होता ।
ॐ तत्सत् !
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।६।।
हे पापरहित अर्जुन ! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है । वह सुख और ज्ञान की आसक्ति से (देहीको) बाँधता है ।
व्याख्या—
गुणातीत होने के बहुत समीप होने के कारण सत्त्वगुण को अनामय (निर्विकार) कहा गया है । परन्तु सुख और ज्ञान के संग के कारण वह विकारी हो जाता है; क्योंकि संग रजोगुण का स्वरूप है । सुख और ज्ञान बाधक नहीं हैं, प्रत्युत उनका संग बाधक है । संग है-उनको अपना मान लेना । वास्तव में सत्त्वगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है । अतः जब तक संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती; क्योंकि स्वरूप असंग है ।
सात्त्विक ज्ञान में तो ‘मैं ज्ञानी हूँ’-यह संग रहता है, पर तत्त्वज्ञान सर्वथा असंग है अर्थात् तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ज्ञानी हूँ’- यह संग नहीं रहता । सात्त्विक ज्ञान में द्रष्टा रहता है और अपने में विशेषता का भान होता है, परन्तु तत्त्वज्ञान में कोई द्रष्टा नहीं रहता और अपने में कोई कमी भी नहीं रहती तथा (व्यक्तित्व न रहनेसे) विशेषता का भान भी नहीं होता ।
ॐ तत्सत् !
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