Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.३८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।५५।।

हे पाण्डव ! जो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला, मेरे ही परायण और मेरा ही प्रेमी भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्र के साथ वैरभाव से रहित है, वह भक्त मुझे प्राप्त होता है ।

व्याख्या—

अनन्यभक्तिके पाँच साधन हैं-

(१) भगवान्‌के लिये कर्म करना अर्थात्‌ स्थूलशरीर से भगवान्‌ के परायण होना,
(२) भगवान्‌ के परायण होना अर्थात्‌ सूक्ष्म तथा कारणशरीर से भगवान्‌ के परायण होना,
(३) भगवान्‌ का प्रेमी भक्त होना अर्थात्‌ स्वयं से भगवान्‌ के परायण होना,
(४) सर्वथा आसक्तिरहित होना और
(५) प्राणीमात्र के साथ वैरभाव से रहित होना ।

इन पाँचों में प्रथम तीन बातें भगवान्‌ से सम्बन्ध जोड़ने के लिये हैं और अन्तिम दो बातें संसार से सम्बन्ध तोड़ने के लिये हैं ।
संसार की सत्ता सिद्ध की दृष्टि में नहीं है, प्रत्युत साधक की दृष्टि में है । अतः साधक को सावधान रहना चाहिये कि वह संसार के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध न माने; क्योंकि सम्बन्ध ही बाँधने वाला है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो
नामैकादशोऽध्याय:॥ ११ ॥

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