॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१५।।
वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहरभीतर परिपूर्ण हैं और चरअचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं एवं दूरसेदूर तथा नजदीकसेनजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे जाननेका विषय नहीं हैं।
व्याख्या—
परमात्माको बारहवें श्लोकमें ‘ज्ञेय’ कहा गया है, पर प्रस्तुत श्लोकमें उन्हें ‘अविज्ञेय’ कहा गया है । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ज्ञेय होनेपर भी संसार की तरह ज्ञेय नहीं हैं । जैसे संसार इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जाना जाता है, ऐसे परमात्मा इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं जाने जाते । इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके कार्य हैं । प्रकृति का कार्य प्रकृति को भी पूरा नहीं जान सकता, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मा को जान ही कैसे सकता है ? परमात्माको तो मानकर स्वीकार करना पड़ता है; क्योंकि स्वीकृति स्वयं में होती है । स्वयं की परमात्मा के साथ एकता है, इसलिये परमात्मा की प्राप्ति भी स्वीकृति से होती है, चिन्तन-मनन-श्रवण-वर्णन करनेसे नहीं ।
ॐ तत्सत् !
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१५।।
वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहरभीतर परिपूर्ण हैं और चरअचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं एवं दूरसेदूर तथा नजदीकसेनजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे जाननेका विषय नहीं हैं।
व्याख्या—
परमात्माको बारहवें श्लोकमें ‘ज्ञेय’ कहा गया है, पर प्रस्तुत श्लोकमें उन्हें ‘अविज्ञेय’ कहा गया है । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ज्ञेय होनेपर भी संसार की तरह ज्ञेय नहीं हैं । जैसे संसार इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जाना जाता है, ऐसे परमात्मा इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं जाने जाते । इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके कार्य हैं । प्रकृति का कार्य प्रकृति को भी पूरा नहीं जान सकता, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मा को जान ही कैसे सकता है ? परमात्माको तो मानकर स्वीकार करना पड़ता है; क्योंकि स्वीकृति स्वयं में होती है । स्वयं की परमात्मा के साथ एकता है, इसलिये परमात्मा की प्राप्ति भी स्वीकृति से होती है, चिन्तन-मनन-श्रवण-वर्णन करनेसे नहीं ।
ॐ तत्सत् !
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