॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।१८।।
इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इस को तत्त्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
समग्र परमात्माका ज्ञान वास्तवमें भक्तिसे ही हो सकता है । इसलिये साधकको भक्त होना चाहिये । क्षेत्रको तत्त्वसे जाननेपर क्षेत्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । ज्ञान (साधन-समुदाय)-को तत्त्वसे जाननेपर देहाभिमान मिट जाता है । ज्ञेयको तत्त्वसे जाननेपर उसकी प्राप्ति हो जाती है ।
यहाँ आये ‘मद्भावायोपपद्यते’ पदको गीतामें कई प्रकारसे कहा गया है; जैसे-‘मद्भावमागताः’ (४ । १०), ‘मम साधर्म्यमागताः’ (१४ । २), ‘मद्भावं सो$धिगच्छति’ (१४ । १९) ‘मद्भाव’ का अर्थ है- मुझ परमात्माकी सत्ता । यह सिद्धान्त है कि सत्ता एक हीहोती है, दो नहीं । भगवान्ने ज्ञान और भक्ति-दोनोंमें ही अपने भावकी प्राप्ति बतायी है । ‘ज्ञान’ में इसका तात्पर्य है-ब्रह्मसे साधर्म्य होना अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषका भी सत्-चित्-आनन्दरूप होना । ‘भक्ति’ में इसका तात्पर्य है-भक्तकी भगवान्के साथ आत्मीयता अर्थात् अभिन्नता होना ।
ॐ तत्सत् !
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।१८।।
इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इस को तत्त्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
समग्र परमात्माका ज्ञान वास्तवमें भक्तिसे ही हो सकता है । इसलिये साधकको भक्त होना चाहिये । क्षेत्रको तत्त्वसे जाननेपर क्षेत्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । ज्ञान (साधन-समुदाय)-को तत्त्वसे जाननेपर देहाभिमान मिट जाता है । ज्ञेयको तत्त्वसे जाननेपर उसकी प्राप्ति हो जाती है ।
यहाँ आये ‘मद्भावायोपपद्यते’ पदको गीतामें कई प्रकारसे कहा गया है; जैसे-‘मद्भावमागताः’ (४ । १०), ‘मम साधर्म्यमागताः’ (१४ । २), ‘मद्भावं सो$धिगच्छति’ (१४ । १९) ‘मद्भाव’ का अर्थ है- मुझ परमात्माकी सत्ता । यह सिद्धान्त है कि सत्ता एक हीहोती है, दो नहीं । भगवान्ने ज्ञान और भक्ति-दोनोंमें ही अपने भावकी प्राप्ति बतायी है । ‘ज्ञान’ में इसका तात्पर्य है-ब्रह्मसे साधर्म्य होना अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषका भी सत्-चित्-आनन्दरूप होना । ‘भक्ति’ में इसका तात्पर्य है-भक्तकी भगवान्के साथ आत्मीयता अर्थात् अभिन्नता होना ।
ॐ तत्सत् !
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