Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

अगर तू अभ्यास(योग) में भी असमर्थ है, तो मेरे लिये कर्म करने के परायण हो जा । मेरे लिये कर्मों को करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जायगा ।

व्याख्या—

अभ्यासकी अपेक्षा भी क्रियाओं को भगवान्‌ के अर्पण करना सुगम है । कारण कि अभ्यास तो नया काम है, जो करना पड़ता है, पर कर्म करने का स्वभाव पड़ा हुआ होने से कर्म स्वतः होते हैं । उन लौकिक-पारमार्थिक सभी कर्मों को भगवान्‌ के अर्पण करने से मनुष्य सुगमतापूर्वक भगवान्‌ को प्राप्त हो जाता है (गीता ९ । २७-२८) ।

ॐ तत्सत् !

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