॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ॐ तत्सत् !
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥११॥
यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आप में स्थित इस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।
व्याख्या-
सदा न भोग साथ रहता है, न संग्रह साथ रहता है- यह विवेक मनुष्य में स्वतः है। परन्तु जो मनुष्य शास्त्र पढ़ते हुए, सत्संग करते हुए, साधन करते हुए भी अपने विवेक की तरफ ध्यान नहीं देते, भोग और संग्रह से अलगाव का अनुभव नहीं करते, वे मनुष्य ‘अकृतात्मा’ हैं। ऐसे मनुष्यों को अठारहवें अध्याय के सालहवें श्लोक में भगवान ने ‘अकृतबुद्धि’ और ‘दुर्मति’ कहा है। यद्यपि परमात्मप्राप्ति कठिन नहीं है, तथापि भीतर में राग, आसक्ति, सुखबुद्धि पड़ी रहने से साधन करते हुए भ्ज्ञी परमात्मा को नहीं जानते। कारण कि भोग तथा संग्रह में रुचि रखने वाले मनुष्य का विवेक स्थिर नहीं रहता।
पूर्वश्लोक में जिन्हें ‘विमूढाः’ कहा गया है, उन्हीं को यहाँ ‘अचेतसः कहा गया है। गुणों से मोहित होने के कारण वे न तो विषयेां के विभाग को जानते हैं और न स्वयं के विभाग को ही जानते हैं अर्थात भेागों का संयोग-वियोग अलग है और स्वयं अलग है-यह नहीं जानते।
सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक के इस प्रकरण में भगवान यह बताना चाहते हैं कि मेरा अंश जीवात्मा सर्वथा अलग है और जिस सामग्री (शरीरादि पदार्थ और क्रिया)- को वह भूल से अपनी मानता है, वह सर्वथा अलग है। सूर्य और अमावस्या की रात्रि की तरह दोनों का विभाग ही अलग-अलग है। उनका परस्पर संयोग होना सम्भव ही नहीं है। जो उपर्युक्त जड़ और चेतन-दोनों के विभाग को सर्वथा अलग-अलग देखता है, वही ज्ञानी और योगी है। परन्तु जो दोनों को मिला हुआ देखता है, वह अज्ञानी और भोगी है।
ॐ तत्सत् !
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