॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।२३।।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य अलग अलग जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
व्याख्या—
जो साधक पूर्वश्लोक में आये ‘देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ के अनुसार अपनेको देहसे सर्वथा अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदिके अनुसार समस्त कर्तव्य-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुनर्जन्म होनेमें गुणोंका संग ही कारण है (गीता १३ । २१) । जैसे छाछ्से निकला हुआ मक्खन पुनः छाछ्में मिलकर दही नहीं बनता, ऐसे ही प्रकृतिजन्य गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य पुनः गुणोंसे नहीं बँधता (गीता ४ । ३५) ।
ॐ तत्सत् !
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।२३।।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य अलग अलग जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
व्याख्या—
जो साधक पूर्वश्लोक में आये ‘देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ के अनुसार अपनेको देहसे सर्वथा अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदिके अनुसार समस्त कर्तव्य-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुनर्जन्म होनेमें गुणोंका संग ही कारण है (गीता १३ । २१) । जैसे छाछ्से निकला हुआ मक्खन पुनः छाछ्में मिलकर दही नहीं बनता, ऐसे ही प्रकृतिजन्य गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य पुनः गुणोंसे नहीं बँधता (गीता ४ । ३५) ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment