॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ॐ तत्सत् !
अर्जुन उवाच
कैर्लिग्ङैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचार: कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥२१॥
श्रीभगवानुवाच-
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२॥
अर्जुन बोले-
हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है।
श्रीभगवान बोले
हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह- ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।
व्याख्या-
वृत्तियाँ एक समान किसी की भी नहीं रहतीं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुष के अन्तःकरण में भी होती हैं, पर उसका उन वृत्तियों से राग-द्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ अपने-आप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुष की दृष्टि उधर जाती ही नहीं; क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं। गुणातीत महापुरुष में ‘अनुकूलता बनी रहे, प्रतिकूलता मिट जाय’- ऐसी इच्छा नहीं होती। निर्विकारता का अनुभव होने पर उसे अनुकूलता- प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है, पर स्वयं पर उनका असर नहीं पड़ता। अन्तःकरण में वृत्तियाँ बदलती हैं, पर स्वयं उनसे निर्लिप्त रहता है। साधक पर भी वृत्तियों का असर नहीं पड़ना चाहिये; क्योंकि गुणातीत मनुष्य साधक का आदर्श होता है, साधक उसका अनुयायी होता है। साधकमात्र के लिये यह आवश्यक है कि वह शरीर का धर्म अपने में न माने। वृत्तियाँ अन्तःकरण में हैं, अपने में नहीं। अतः साधक वृत्तियों को न तो अच्छा माने, न बुरा माने और न अपने में ही माने। कारण कि वृत्तियाँ तो आने-जाने वाली हैं, पर स्वयं निरन्तर रहने वाला है। वृत्तियाँ हम में नहीं होतीं, प्रत्युत अन्तःकरण में ही होती हैं। यदि वृत्तियाँ हम में होतीं तो जब तक हम रहते, तब तक वृत्तियाँ भी रहतीं। परन्तु यह सबका अनुभव है कि हम तो निरन्तर रहते हैं, पर वृत्तियाँ आती-जाती रहती हैं। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ है और हमारा (स्वयं का) सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। इसलिये वृत्तियों के परिवर्तन का अनुभव करने वाला स्वयं एक ही रहता है।
ॐ तत्सत् !
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