Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।।३०।।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।३१।।

आप अपने प्रज्वलित मुखों द्वारा सम्पूर्ण लोकों का ग्रसन करते हुए उन्हें चारों ओर से बारबार चाट रहे हैं और हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश अपने तेज से सम्पूर्ण जगत् को परिपूर्ण करके सबको तपा रहा है।
मुझे यह बताइये कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं ? हे देवताओंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये । आदिरूप आप को मैं तत्त्व से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को भली-भांति नहीं जानता।

व्याख्या—

भगवान्‌ के ऐश्‍वर्ययुक्त उग्ररूप को देखकर अर्जुन इतने घबरा जाते हैं कि अपने ही सखा श्रीकृष्णसे पूछ बैठते हैं कि आप कौन हैं !

ॐ तत्सत् !

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