Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१ ।।

श्रीभगवान् बोले –

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन यह – रूप से कहे जाने वाले शरीर को क्षेत्र कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है ? उसको ज्ञानीलोग क्षेत्रज्ञ नाम से कहते हैं ।

व्याख्या—

अर्जुन के द्वारा बारहवें अध्याय के आरम्भ में किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान्‌ ने सगुण-साकार की उपासनाका विस्तार से वर्णन किया । अब भगवान्‌ यहाँ से निर्गुण-निराकार की उपासना का विस्तार से वर्णन करना आरम्भ करते हैं ।

जैसे खेत में तरह-तरह के बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य शरीरमें अहंता-ममता करके जीव तरह-तरहके कर्म करता है और फिर उन कर्मोंके फलरूपमें उसे दूसरा शरीर मिलता है । भगवान्‌ शरीरके साथ माने हुए अहंता-ममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको इदंता (पृथकता)-से देखनेके लिये कह रहे हैं, जो प्रत्येक मार्गके साधकके लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
अनन्त ब्रह्माण्डों में जितने भी शरीर हैं, उनमें जीव स्वयं ‘क्षेत्रज्ञ’ है और अनन्त ब्रह्माण्ड ‘क्षेत्र’ हैं । क्षेत्रज्ञ के एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं-‘येन सर्वमिदं ततम्‌’ (गीता २ । १७) । साधक को जानना चाहिये कि मैं क्षेत्र नहीं हूँ, प्रत्युत क्षेत्र को जानने वाला ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ ।

एक ही चिन्मय तत्त्व (सत्ता) क्षेत्रके सम्बन्ध से ‘क्षेत्रज्ञ’, क्षरके सम्बन्धसे ‘अक्षर’, शरीर के सम्बन्ध से ‘शरीरी’, दृश्यके सम्बन्धसे ‘द्र्ष्टा’, साक्ष्य के सम्बन्ध से ‘साक्षी’ और करण के सम्बन्ध से ‘कर्त्ता’ कहा जाता है । वास्तव में उस तत्त्व का कोई नाम नहीं है । वह केवल अनुभवरूप है ।

ॐ तत्सत् !

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