Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।३।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।४।।

जो अपने इन्द्रियसमूह को भलीभांति वशमें करके चिंतन में न आने वाले, सब जगह परिपूर्ण,देखने में न आने वाले, निर्विकार,अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की तत्परता से उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सब जगह समबुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या—

भगवान्‌ ने यहाँ ब्रह्मके जो लक्षण (अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, अक्षर, अव्यक्त आदि) बताये हैं, वही लक्षण जीवात्माके भी बताये हैं * । दोनों के समान लक्षण बताने का तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म-दोनों स्वरूप से एक ही हैं । देह के साथ सम्बन्ध होने से (अनेकरूप से) जो जीव है, वह देह के साथ सम्बन्ध न होने से (एकरूपसे) ब्रह्म है अर्थात्‌ जीव केवल शरीरकी उपाधि से, देहाभिमान के कारण ही अलग है, अन्यथा वह ब्रह्म ही है । इसलिये ज्ञानमार्गमें ब्रह्मकी प्राप्ति होने पर साधककी साध्यसे सधर्मता हो जाती है-‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २ ) ।

सगुण और निर्गुण- ये दो परमात्मा के विशेषण हैं । विशेष्य परमात्मतत्त्व एक ही है । इसलिये भगवान्‌ ने निर्गुणके उपासकोंको भी अपनी ही प्राप्ति बतायी है- ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’ । भगवान्‌ के कथन का तात्पर्य है कि निर्गुण-निराकार रूप भी मेरा ही है, वह मेरे समग्ररूप से अलग नहीं है ।

ज्ञानयोगका साधक प्रायः समाजसे असंग रहता है । वास्तवमें असंगता शरीरसे होनी चाहिये, समाजसे नहीं । समाजसे असंगता होनेपर अहंभाव नहीं मिटता । जब तक साधक स्वयं को शरीर से सर्वथा असंग अनुभव नहीं कर लेता, तब तक संसार से अलग (एकान्तमें) रहनेमात्र से उसका साधन सिद्ध नहीं होगा; क्योंकि शरीर भी संसार का ही अंग है । इसलिये शरीर से सम्बन्ध मानने पर संसारमात्र से सम्बन्ध हो जाता है । शरीर से असंग होने के लिये साधक में प्राणीमात्र के हितका भाव रहना आवश्यक है ।

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* द्रष्टव्य---- ‘गीता-दर्पण’ ग्रन्थका उनसठवाँ लेख--‘गीतामें परमात्मा और जीवात्माका स्वरूप’ ।

ॐ तत्सत् !

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