Saturday, 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।७।।

इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)।

व्याख्या—
प्रस्तुत श्लोकमें ‘ममैवांशः’ पद में ‘एव’ कहनेका तात्पर्य है कि जीव केवल भगवान्‌ का ही अंश है, इसमें प्रकृतिका अंश किंचिन्मात्र भी नहीं है । जैसे शरीरमें माता और पिता- दोनोंके अंशका मिश्रण होता है, ऐसे जीवमें भगवान्‌ और प्रकृति के अंशका मिश्रण (संयोग) नहीं है, प्रत्युत यह केवल भगवान्‌ का ही अंश है । अतः इसका सम्बन्ध केवल भगवान्‌ का ही अंश है । अतः इसका सम्बन्ध केवल भगवान्‌ के साथ है, प्रकृतिके साथ नहीं । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तो यह खुद जोड़ता है ।
प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही अनर्थका कारण है । जीव शरीरको अपनी तरफ खींचता है (कर्षति) अर्थात्‌ उसे अपना मानता है, पर जो वास्तवमें अपना है, उस परमात्माको अपना मानता ही नहीं ! यही जीवकी मूल भूल है ।
हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ है-‘ममैवांशो जीवलोके’, इसलिये हम परमात्मा में ही स्थित हैं । परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका सम्बन्ध अपरा प्रकृति के साथ है, इसलिये वे प्रकृति में ही स्थित हैं-‘प्रकृतिस्थानि’ । शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं और परमात्मा से अलग हम कभी हुए नहीं, होंगे ही नहीं, हो सकते ही नहीं । हमसे दूर-से-दूर कोई वस्तु है तो वह शरीर है और समीप-से-समीप कोई वस्तु है तो वह परमात्मा है । परन्तु शरीर को मैं, मेरा और मेरे लिये मानने के कारण मनुष्यको उलटा दीखता है अर्थात्‌ शरीर तो समीप दीखता है, परमात्मा दूर ! शरीर तो प्राप्त दीखता है, परमात्मा अप्राप्त !

ॐ तत्सत् !

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