॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।२१।।
प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का सङ्ग ही उसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
व्याख्या—
‘मैं’ जड़ (प्रकृति) है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है । ‘मैं हूँ’-यह जड़-चेतनका तादात्म्य है । इस ‘मैं हूँ’ में ही कर्तापन तथा भोक्तापन रहता है । यदि साधक ‘मैं’ को मिटा दे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । जैसे लोहे और अग्नि में तादात्म्य न रहने से लोहा पृथ्वी पर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्व में लीन हो जाती है, ऐसे ‘मैं’ (अहम्) तो प्रकृतिमें ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होनेसे) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है । मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये-इन दो बातोंकी सिद्धि होते ही ‘हूँ’ सत्तामात्रमें अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाती है । तात्पर्य है कि ‘मैं’ (जड़-अंश) जड़में और ‘हूँ’ (चेतन-अंश) चेतन तत्त्वमेम विलीन हो जाता है । इस प्रकार जड़-चेतनकी ग्रन्ति छूट जाती है और फिर एक ‘है’ (सत्तामात्र)- के सिवाय कुछ नहीं रहता । ‘है’ में कर्तापन और भोक्तापन नहीं है । तात्पर्य है कि भोगोंमें ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता । ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता । अतः साधक ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे ।
सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण कोई बाधा नहीं देते; परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें जाता है । गुणोंका संग जीव स्वयं करता है । असंगता जीवका स्वरूप है-‘असङ्गो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदा० ४ । ३ । १५) । यदि जीव गुणोंका संग न करे तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता ।
ॐ तत्सत् !
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।२१।।
प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का सङ्ग ही उसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
व्याख्या—
‘मैं’ जड़ (प्रकृति) है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है । ‘मैं हूँ’-यह जड़-चेतनका तादात्म्य है । इस ‘मैं हूँ’ में ही कर्तापन तथा भोक्तापन रहता है । यदि साधक ‘मैं’ को मिटा दे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । जैसे लोहे और अग्नि में तादात्म्य न रहने से लोहा पृथ्वी पर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्व में लीन हो जाती है, ऐसे ‘मैं’ (अहम्) तो प्रकृतिमें ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होनेसे) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है । मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये-इन दो बातोंकी सिद्धि होते ही ‘हूँ’ सत्तामात्रमें अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाती है । तात्पर्य है कि ‘मैं’ (जड़-अंश) जड़में और ‘हूँ’ (चेतन-अंश) चेतन तत्त्वमेम विलीन हो जाता है । इस प्रकार जड़-चेतनकी ग्रन्ति छूट जाती है और फिर एक ‘है’ (सत्तामात्र)- के सिवाय कुछ नहीं रहता । ‘है’ में कर्तापन और भोक्तापन नहीं है । तात्पर्य है कि भोगोंमें ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता । ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता । अतः साधक ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे ।
सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण कोई बाधा नहीं देते; परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें जाता है । गुणोंका संग जीव स्वयं करता है । असंगता जीवका स्वरूप है-‘असङ्गो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदा० ४ । ३ । १५) । यदि जीव गुणोंका संग न करे तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता ।
ॐ तत्सत् !
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