Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।२७।।

जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

व्याख्या—

जैसे-आकाशमें कभी सूर्य का प्रकाश फैल जाता है, कभी रातका अँधेरा छा जाता है, कभी धुआँ छा जाता है, कभी बादल छा जाते हैं, कभी बिजली चमकती है, कभी वर्षा होती है, कभी ओले गिरते हैं, कभी गर्जना होती है; परन्तु आकाशमें कोई फर्क नहीम पड़ता । वह ज्यों-का-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहता है । इसी प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मसत्तामें कभी महासर्ग और महाप्रलय होता है, कभी सर्ग और प्रलय होता है, कभी जन्म और मृत्यु होती है, कभी अकाल पड़ता है, कभी बाढ़ आती है, कभी भूकम्प आता है, कभी घमासान युद्ध होता है; परन्तु सत्ता ज्यों-की-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहती है । बद्ध हो या मुक्त, पापी हो या धर्मात्मा, यह निर्विकार सत्ता दोनोंमें समानरूपमें स्थित रहती है ।

प्रतिक्षण विनाशकी तरफ जानेवाले प्राणियोंमें विनाशरहित, सदा एकरूप रहनेवाले परमात्माको जो निर्लिप्त-निर्विकार देखता है, वह वास्तवमें सही देखता है । तात्पर्य है कि जो परिवर्तनशील, नाशवान्‌ शरीरके साथ स्वयंको देखता है, उसका देखना सही नहीं है । परन्तु जो सदा ज्यों-के-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहनेवाले परमात्मतत्त्वके साथ स्वयंको अभिन्नरूपसे देखता है, उसका देखना ही सही है ।

ॐ तत्सत् !

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