Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।५।।

हे महाबाहो ! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम -- ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं ।

व्याख्या—

प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण प्रकृति-विभाग में ही हैं । परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर से अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण ये गुण अविनाशी चेतन को नाशवान्‌, जड़ शरीर में बाँध देते हैं अर्थात्‌ ‘मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है’ ऐसा देहाभिमान उत्पन्न कर देते हैं । तात्पर्य यह कि सभी विकार प्रकृति के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं । चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप में कोई भी विकार नहीं है--‘असङ्गो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक० ४ । ३ । १५), ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता १३ । २२) । विकारों के कारण ही जन्म-मरण होता है ।

वास्तवमें गुण जीव को नहीं बाँधते, प्रत्युत जीव ही उनका संग करके बँध जाता है । अगर गुण बाँधने वाले तो गुणों के रहते हुए कोई उनसे छूट सकता ही नहीं, गुणातीत (जीवनमुक्त) हो सकता ही नहीं !

ॐ तत्सत् !

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