Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।१३।।

वे (परमात्मा) सब जगह हाथों और पैरोंवाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब,जगह कानों वाले हैं । वे संसार में सब को व्याप्त करके स्थित हैं।

व्याख्या—

भगवान्‌ सभी अवयवों से सभी क्रियाएँ कर सकते हैं; क्योंकि उनके सभी अवयवोंमं सभी अवयव विद्यमान हैं । उनके छोटे-से-छोटे अंशमें भी सब-की-सब इन्द्रियाँ विद्यमान हैं । उनमें सब जगह सब कुछ है-‘सर्व सर्वात्मकम्‌’ (योगदर्शन व्यासभाष्य, विभूति० १४) । जैसे, कलम और स्याहीमें किस जगह कौन-सी लिपि नहीं है ? जानकार व्यक्ति उस एक ही कलम और स्याहीसे अनेक लिपियाँ लिख देता है । सोनेकी डलीमें किस जगह कौन-सा गहना नहीं है ? सुनार उस एक डलीमेंसे एक कड़ा, कण्ठी, नथ आदि अनेक गहने निकाल लेता है । इसी तरह लोहेमें किस जगह कौन-सा औजार अथवा अस्त्र-शस्त्र नहीं है ? मिट्टी और पत्थरमें किस जगह कौन-सी मूर्ति नहीं है ? ऐसे ही भगवान्‌में किस जगह क्या नहीं है ?

ॐ तत्सत् !

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