॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१९॥
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरूच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरूच्यते ॥२०॥
प्रकृति और पुरुष-दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःख के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।
व्याख्या- भगवान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग का ही प्रकृति और पुरुष के नाम से पुनः वर्णन करते हैं। शरीर तथा संसार प्रकृति-विभाग में और आत्मा और परमात्मा पुरुष-विभाग में हैं। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इनके भेद का ज्ञान अर्थात विवेक भी अनादि है। अतः विवेक-दृष्टि से देखें तो ये दोनों विभाग एक-दूसरे से बिलकुल असम्बद्ध हैं।
विकृतिमात्र जड़ में ही होती है, चेतन में नहीं। अतः वास्तव में सुखी-दुःखी होना चेतन का धर्म नहीं है, प्रत्युत जड़ के संग से अपने को सुखी-दुःखी मानना चेतन का स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दुःखी नहीं होता, प्रत्युत (सुखाकार-दुःखाकार वृत्ति से मिल कर) अपने को सुखी-दुःखी मान लेता है। चेतन में एक-दूसरे से विरुद्ध सुख-दुःख रूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं? दो भाव परिवर्तनशील प्रकृति में हो हो सकते हैं। जो अपरिवर्तनशील है, उसके दो भाव अथवा रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण विकार परिवर्तनशील में ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं जों-का-त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति के संग से उन विकारों को अपने में आरोपित करता रहता है।
भगवान शक्तिमान हैं और प्रकृति उनकी शक्ति है। ज्ञान की दृष्टि से शक्ति और शक्तिमान-दोनों अलग-अलग हैं; क्योंकि शक्ति में तो परिवर्तन (घटना-बढ़ना) होता है, पर शक्तिमान ज्यों-का-त्यों रहता है। परन्तु भक्ति की दृष्टि से देखें तो शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न हैं; क्योंकि शक्ति को शक्तिमान से अलग नहीं कर सकते अर्थात शक्तिमान के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ज्ञान और भक्ति-दोनों की बात रखने के लिये ही भगवान ने प्रकृति को न अनन्त कहा है, न सान्त, प्रत्युत ‘अनादि’ कहा है। कारण कि यदि प्रकृति को अनन्त (नित्य) कहें तो ज्ञान का खण्डन हो जायगा; क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से प्रकृति की सत्ता ही नहीं है- ‘नासतो विद्यते भावः’[1]। यदि प्रकृति को सान्त (अनित्य) कहें तो भक्ति का खण्डन हो जायगा; क्योंकि भक्ति की दृष्टि से प्रकृति भगवान की शक्ति होने से भगवान से अभिन्न है- ‘सदसच्चाहम्’[2]।
वास्तव में परमात्मा का स्वरूप ‘समग्र’ है। परमात्मा में कोई शक्ति न हो-ऐसा सम्भव ही नहीं है। यदि परमात्मा को सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय (सीमित) ही सिद्ध होंगे। उनमें शक्ति का परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्ति का अभाव नहीं हो सकता। शक्ति कारण रूप से उन में रहती ही है, अन्यथा परमात्मा के सिवाय शक्ति (प्रकृति)-के रहने का स्थान कहाँ होगा? इसलिये यहाँ प्रकृति और पुरुष-दोनों को अनादि कहा गया है।
ॐ तत्सत् !
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१९॥
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरूच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरूच्यते ॥२०॥
प्रकृति और पुरुष-दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःख के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।
व्याख्या- भगवान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग का ही प्रकृति और पुरुष के नाम से पुनः वर्णन करते हैं। शरीर तथा संसार प्रकृति-विभाग में और आत्मा और परमात्मा पुरुष-विभाग में हैं। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इनके भेद का ज्ञान अर्थात विवेक भी अनादि है। अतः विवेक-दृष्टि से देखें तो ये दोनों विभाग एक-दूसरे से बिलकुल असम्बद्ध हैं।
विकृतिमात्र जड़ में ही होती है, चेतन में नहीं। अतः वास्तव में सुखी-दुःखी होना चेतन का धर्म नहीं है, प्रत्युत जड़ के संग से अपने को सुखी-दुःखी मानना चेतन का स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दुःखी नहीं होता, प्रत्युत (सुखाकार-दुःखाकार वृत्ति से मिल कर) अपने को सुखी-दुःखी मान लेता है। चेतन में एक-दूसरे से विरुद्ध सुख-दुःख रूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं? दो भाव परिवर्तनशील प्रकृति में हो हो सकते हैं। जो अपरिवर्तनशील है, उसके दो भाव अथवा रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण विकार परिवर्तनशील में ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं जों-का-त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति के संग से उन विकारों को अपने में आरोपित करता रहता है।
भगवान शक्तिमान हैं और प्रकृति उनकी शक्ति है। ज्ञान की दृष्टि से शक्ति और शक्तिमान-दोनों अलग-अलग हैं; क्योंकि शक्ति में तो परिवर्तन (घटना-बढ़ना) होता है, पर शक्तिमान ज्यों-का-त्यों रहता है। परन्तु भक्ति की दृष्टि से देखें तो शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न हैं; क्योंकि शक्ति को शक्तिमान से अलग नहीं कर सकते अर्थात शक्तिमान के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ज्ञान और भक्ति-दोनों की बात रखने के लिये ही भगवान ने प्रकृति को न अनन्त कहा है, न सान्त, प्रत्युत ‘अनादि’ कहा है। कारण कि यदि प्रकृति को अनन्त (नित्य) कहें तो ज्ञान का खण्डन हो जायगा; क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से प्रकृति की सत्ता ही नहीं है- ‘नासतो विद्यते भावः’[1]। यदि प्रकृति को सान्त (अनित्य) कहें तो भक्ति का खण्डन हो जायगा; क्योंकि भक्ति की दृष्टि से प्रकृति भगवान की शक्ति होने से भगवान से अभिन्न है- ‘सदसच्चाहम्’[2]।
वास्तव में परमात्मा का स्वरूप ‘समग्र’ है। परमात्मा में कोई शक्ति न हो-ऐसा सम्भव ही नहीं है। यदि परमात्मा को सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय (सीमित) ही सिद्ध होंगे। उनमें शक्ति का परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्ति का अभाव नहीं हो सकता। शक्ति कारण रूप से उन में रहती ही है, अन्यथा परमात्मा के सिवाय शक्ति (प्रकृति)-के रहने का स्थान कहाँ होगा? इसलिये यहाँ प्रकृति और पुरुष-दोनों को अनादि कहा गया है।
ॐ तत्सत् !
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