॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।९।।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजय करता है ।
व्याख्या—
सत्त्वगुण केवल सुख होनेपर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है-‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता १४ । ६) । इसी तरह रजोगूण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है-‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्’ (गीता १४ । ७) । परन्तु तमोगुण स्वरूप से ही विजय करता है । इसलिये तमोगुणमें ‘संग’ शब्द नहीं आया है ।
ॐ तत्सत् !
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।९।।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजय करता है ।
व्याख्या—
सत्त्वगुण केवल सुख होनेपर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है-‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता १४ । ६) । इसी तरह रजोगूण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है-‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्’ (गीता १४ । ७) । परन्तु तमोगुण स्वरूप से ही विजय करता है । इसलिये तमोगुणमें ‘संग’ शब्द नहीं आया है ।
ॐ तत्सत् !
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