Friday, 12 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  ब्रह्राणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । 
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥२७॥ 
 
क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ। 
 
व्याख्या- 
‘बह्म तथा अविनाशी अमृत का आश्रय मैं हूँ’- यह निर्गुण-निराकार की तथा ‘ज्ञानयोग’ की बात है। ‘शाश्वत धर्म का आश्रय मैं हू’- यह सगुण-साकार की तथा ‘कर्मयोग’ की बात है। ‘ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-निराकार की तथा ‘ध्यानयोग’ की बात है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करने से, मेरा आश्रय लेने से भक्त को ज्ञानयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग-तीनों की सिद्धि हो जाती है। कारण कि समग्र भगवान के एक अंश में सब कुछ विद्यमान है। भगवान ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि सबकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हैं। 
 
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु 
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।१४।। 
 
ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment