Thursday, 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।

हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुणके बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।

व्याख्या—

जब रजोगुण बढ़ता है तब लोभ, प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं । अतः ऐसे समय साधक को यह विचार करना चाहिये कि जब अनन्त ब्रह्माण्डों में लेशमात्र भी कोई वस्तु अपनी नहीं है, सब वस्तुएँ मिलने-बिछुड़नेवाली हैं, फिर अपने लिये क्या करना चाहिये ? ऐसा विचार करके रजोगुणमयी वृत्तियों को मिटा दे, उनसे उदासीन हो जाय ।
रजोगुण असंगतक विरोधी है-‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (गीत १४ । ७) । मनुष्य क्रिया और पदार्थसे असंग होनेपर ही योगारूढ़ होता है (गीता ६ । ४) । परन्तु क्रिया और पदार्थक संग करनेके कारण रजोगुण मनुष्यको योगारूढ़ नहीं होने देता ।

ॐ तत्सत् !

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