Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।३४।।

इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर (विभाग) को तथा कार्यकारणसहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभागका ज्ञान ‘विवेक’ कहलाता है । जो साधक इस विवेकको महत्त्व देकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको ठीक-ठीक जान लेते हैं तथा प्रकृति और उसके कार्य (शरीर)-को स्वयंसे सर्वथा अलग अनुभव कर लेते हैं, वे चिन्मय परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं । उनकी दृष्टिमें एक चिन्मय तत्त्वके सिवाय कुछ नहीं रहता । सम्पूर्ण क्रियाएँ क्षेत्र अर्थात्‌ जड़-विभागेमें ही होती हैं । क्षेत्रज्ञ अर्थात्‌ चेतन-विभाग में कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथ उससे होनेवाली स्थिरता व समाधि-ये सभी जड़-विभागमें ही हैं । कामन, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं । सम्पूर्ण पाप, ताप भी जड़-विभागमें ही हैं । पराश्रय तथा परिश्रम-ये दोनों जड़-विभागमें हैं । भगवदाश्रय और विश्राम-ये दोनों चेतन-विभागमें हैं । जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ‘ज्ञान’ है । इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं (गीता ४ । ३६ - ३७) ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्याय:॥ १३॥

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