॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।३०।।
जिस कालमें साधक प्राणियों के अलगअलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सब का विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
व्याख्या—
सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों के स्थूल-सूक्ष्म तथा कारणशरीर एक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृतिमें ही स्थित रहते हैं और प्रकृतिमें ही लीन होते हैं-इस प्रकार देखनेवाला ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृतिसे अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।३०।।
जिस कालमें साधक प्राणियों के अलगअलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सब का विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
व्याख्या—
सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों के स्थूल-सूक्ष्म तथा कारणशरीर एक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृतिमें ही स्थित रहते हैं और प्रकृतिमें ही लीन होते हैं-इस प्रकार देखनेवाला ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृतिसे अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment