॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।३।।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।४।।
वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।
यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
ॐ तत्सत् !
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।३।।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।४।।
वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।
यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
ॐ तत्सत् !
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